बहुत से विद्वान अर्थशास्त्री गांधी जी को आज भी एक आर्थिक चिंतक के रूप में स्वीकार नहीं करते हैं और उनके आर्थिक दृष्टिकोण को एक कभी न पूरा होने वाला सपना या अंग्रेजी में कहें तो ‘युटोपिया’ बताते हैं। किन्तु जब हम वैश्विक स्तर पर बड़े -बड़े आर्थिक सिद्धांतों को असफल होते हुए देखते हैं, तो हमारा ध्यान फिर से गांधी के उस सरल और मानवीय अर्थशास्त्र की ओर जाता है जिसे उन्होंने विद्वानों के लिए नहीं जनमानस के लिए सरल शब्दों में सरलता से समझाया था। अन्य आर्थिक सिद्धातों की जटिलता की तुलना में सरलता ही गांधी के आर्थिक चिंतन की विशेषता है।
रहा सवाल प्रासंगिकता का तो जब हम नियो क्लासिकल या पश्चिम के अर्थ चिंतकों की परिभाषाओं और अवधारणाओं को असफल होते हुए देखते हैं, तो गांधी की प्रासंगिकता और बढ़ जाती है। आधुनिक अर्थशास्त्र, असामानताओं, संघर्ष और असमान वितरण का अर्थशास्त्र है। विभिन्न सामाजिक शोधों और अनुसंधानों से भी ये बात स्पष्ट है कि भूमंडलीकरण के दौर में हमने वाणी विहीन, रोजगार विहीन, क्रूर और असमान वृद्धि प्राप्त की है। गांधी नई इस प्रकार की वृद्धि को अपनी कालजयी रचना हिन्द स्वराज में आज से लगभग १०० वर्षों पहले ही पहचान लिया था।
वर्तमान विकासशील अर्थशास्त्रियों द्वारा इन बातों को महत्व देना ही गांधी की प्रासंगिकता को साबित करता है। गांधी की सर्वोदय, न्यासिता, श्रम की महत्ता, अहिंसक समाज की स्थापना, विकेंद्रीकरण, विलासिताओं पर नियंत्रण, स्वदेशी की अवधारणा उनके राजनीतिक अर्थव्यवस्था के अहिंसक सिद्धांत को और अधिक बलवान बनाती है। गांधी के विचारों पर बी एन घोष, रमेश दीवान , मार्क लुट्ज़, थामस बेबर, कुमारप्पा, विनोबा, लोहिया अजीत के दासगुप्ता, शशी प्रभा शर्मा, भीखू पारेख और आर पी मिश्रा जैसे प्रखर विद्वानों ने योगदान दिया है। गांधी का अर्थशास्त्र केवल गांधी की देन नहीं है, हमें इस बात को भी समझना होगा। गांधी की आर्थिक दर्शन में सबसे बड़ा योगदान कुमारप्पा, दादा धर्माधिकारी, श्रीमन नारायण और सर्वोदय जगत के अन्य चिंतकों ने दिया है। गांधी का आर्थिक दर्शन केवल आर्थिक ना होकर सामाजिक व रचनात्मक भी है।
इसकी प्रासंगिकता इस बात से ही साबित हो जाती है कि नव-क्लासिकल अर्थशास्त्र का कोई भी सिद्धांत संघर्ष समाधान की बात नहीं करता जबकि गांधी का अर्थशास्त्र शांति का अर्थशास्त्र है। आधुनिक जैन समाज के मुनि ने पुस्तक लिखी थी जिसमें उन्होंने अणुव्रत सिद्धातं को सिद्धांत को गांधी की इच्छाविहीनता के सिद्धातं से जोड़ा था। आखिर ये सिद्धांत है क्या? अहिंसक व्रत। गांधी भी तो इस अहिंसक व्रत की बात करते हैं। विडंबना देखिए कि भारतीय मूल का चिंतन जिस संतोष प्रधान न्यूनतम उपभोग की बात करता है। उसकी हमने पाश्चात्य आर्थिक सिद्धांतों मोह मे आकर अवहेलना कर डाली। पश्चिम आर्थिक सिद्धांत इस धारणा को बल प्रदान करते हैं कि हमें अधिकतम उपभोग करना चाहिए जबकि विरोधाभास यह भी है कि ये परिभाषाओं में हमें सिखाते हैं कि कि संसाधन सीमित है। गांधी अपनी आर्थिक अवधारणा की परिभाषा में साधनों की सीमितता के साथ-साथ इच्छाओं की न्यूनता की बात भी करते हैं।
उनका यह कथन कि ‘धरती में व्यक्ति की आवश्यकताओं के लिए तो सब कुछ है किंतु लालच के लिए नहीं’ गांधी की अर्थशास्त्र की परिभाषा को सरल रूप में जनमानस के सामने रखता है जैसा कि मैंने इस लेख में पहले भी कहा है कि गांधी का अर्थशास्त्र सरलता का अर्थशास्त्र है और उसमें किसी प्रकार की जटिलताओं का कोई स्थान नहीं। ऐसा क्यों हुआ? कारण था समाज की स्थाई व्यवस्था को ना समझना और गांधी के अन्य आर्थिक सिद्धांतों की उपेक्षा करना। इस उपेक्षा के कारण वर्तमान आर्थिक व्याधियों उत्पन्न होती हैं। गांधी के दर्शन पर चिंतन मनन करने वाले बहुत विद्वान यह भी मानते हैं कि भारत जैसे देश में एक मध्यम तकनीक या लघु तकनीकी उपयुक्त है, किंतु श्रम प्रधान देश होने के बावजूद पूंजी प्रधान तकनीक को अपनाना व्यापक बेरोजगारी को निमंत्रण देना है। इसी बात को पंडित दीनदयाल उपाध्याय अपनी पुस्तक भारत की अर्थनीति दशा और दिशा में दोहराते हैं। राम मनोहर लोहिया की भी दृष्टि इसी ओर जाती है और वह भी गांधीवाद के अंतर्गत ही अपना आर्थिक विचार रखते हैं, यद्यपि उनकी और गांधी की कुछ अवधारणाओं से वैचारिक विभिन्नतायें भी हैं।
भूमंडलीकरण के बाद जिस तरह समाज में वाणी विहीन, रोजगार विहीन और क्रूर वृद्धि हुई है, आर्थिक चिंतकों को एक बार फिर से गांधी के अर्थशास्त्र की ओर देखने के लिए देखने के लिए विवश होना पड़ा है। शोधार्थियों जैसे स्टिग्लिट्ज़, पिकेटी अमर्त्य सेन, हिमांशु और अन्य ने यह पाया है कि भारत में उदारीकरण के बाद आय, धन और संपत्ति के वितरण में असमानता बढ़ी है और एक नए प्रकार के वर्ग संघर्ष ने जन्म लिया है। गांधी जी इस बात को पहले ही भांप चुके थे। उनके विचार को हमें समझना होगा गांधी ने लिखा था कि “औद्योगिकरण समाज में विषमताएँ लाता और यह एक प्रकार की हिंसा है।” जबकि गांधी के अर्थशास्त्र में हिंसा का कोई स्थान नहीं है। वे एक अहिंसक समाज चाहते हैं। गांधी भली-भांति जानते थे कि आर्थिक समाज के कल्याण से विमुख रहने वाला अर्थशास्त्र और कतार में खड़े व्यक्ति को नीति गत निर्णयों में शामिल न करने वाल अर्थशास्त्र कभी का मानवीय नहीं हो सकता।
ये एक प्रकार का अर्थशास्त्र है। क्या? अनर्थशास्त्र के इस हिंसक चक्र को गांधी के दृष्टिकोण से समझा जा सकता है। इसका उत्तर हमें विनोबा और जयप्रकाश नारायण देते हैं। 1962 की बात है ग्राम स्वराज की गांधी की संकल्पना को साकार बनाने के लिए जयप्रकाश नारायण ने हिंदुस्तान टाइम्स में एक लेख लिखा और उन्होंने कहा कि गांधी के आर्थिक और राजनीतिक विकेंद्रीकरण के स्वप्न को पूरा करने के लिए पंचायती राज संस्थाएं आवश्यक है किंतु इस रूप में नहीं उन्होंने कहा कि पंचायती राज दलीय लोकतंत्र का संसदीय रूप नहीं हो सकता। यदि ऐसा हुआ तो गांव में भी हिंसा फैलेगी। उन्होंने राजनीतिक दलों को पंचायतों से दूर रहने का सुझाव दिया था। वर्ष 2000 14 में उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णय में भारत में पंचायती चुनाव में होने वाली हिंसा को गंभीरता से समझाया है। ये एक प्रकार से छद्मम विकेंद्रीकरण है।
इस छद्म विकेंद्रीकरण से गांधी के आर्थिक दर्शन को ही नुकसान है। इस बात से गांधी की प्रासंगिकता और सिद्ध हो जाती है जो कि हमें उनकी रचना हिंद स्वराज के अलावा उनके अन्य कालजयी लेखों जैसे कि उनके पत्र-पत्रिकाओं नवजीवन, यंग इंडिया, हरिजन और इंडियन ओपिनियन में मिलती है। गांधी के अर्थशास्त्र की प्रासंगिकता के ऊपर एक बहुत अच्छा शोध बी एन घोष ने अपनी पुस्तक ‘गांधियन पॉलीटिकल इकोनामी’ में किया है, जहां उन्होंने मलेशिया की अर्थव्यवस्था के संदर्भ में गांधी की असमानताओं की दृष्टि की गणितीय आधार पर परिकल्पना बनाकर परीक्षण किया है। यह सोच अपने आप में एक नवीनता लिए हुए हैं।
गांधी के अर्थशास्त्र पर लिखने पढ़ने और चिंतन करने वाले नए शोधार्थियों को इस पुस्तक की कार्यप्रणाली और शोध प्रणाली को अपनाना चाहिए। गांधी के आर्थिक दृष्टिकोण को हमें और नवीनता से समझना होगा। यह बात भी हमें समझनी होगी कि गांधी हो सकता है कई जगह यंत्रों को लेकर, मशीनीकरण को लेकर और समाजवाद को लेकर कुछ गंभीर वैचारिक भूल कर सकते हैं, किंतु इन वैचारिक भूलों पर भी एक वैचारिक विमर्श करना आर्थिक नीति निर्माताओं का कर्तव्य है। जिस प्रकार आर्थिक नीति निर्माताओं द्वारा गांधी के आर्थिक दर्शन को छद्मम रूप में अपनाया गया चाहे वह लोकतांत्रिक तौर पर विकेंद्रीकरण हो, या चाहे वह पंचायती राज हो, चाहे वो ग्रामस्वराज हो, और चाहे वह स्वदेशी हो, गांधी की अधूरी आर्थिक अवधारणाओं को अपनाने से इस देश का ही नुकसान है क्योंकि हमें यह समझना होगा कि गांधी का हर एक आर्थिक दर्शन का आधार एक एकमुखी ना होकर बहुआयामी है और यह बहुआयाम, गांधी के रचनात्मक कार्यक्रमों और उनकी नवभारत के निर्माण की अहिंसक परिकल्पना से भी जुड़ा हुआ है।
गांधी की प्रासंगिकता पर यह बात कहते हुए मुझे कोई अतिशयोक्ति नहीं लगती की वर्तमान संदर्भ में जिस प्रकार असमानताएं वर्ग संघर्ष और और हिंसा बढ़ रही हैं हमें एक बार फिर से उनके चिंतन पर मनन करना होगा, विमर्श करना होगा और उनके कथनों पर एक प्रासंगिक परीक्षण भी करना होगा। गांधी इसलिए नहीं प्रासंगिक है कि वह गांधी थे बल्कि गांधी इसलिए प्रासंगिक हैं क्योंकि उनके विचार दूरदर्शी और एक अहिंसक दृष्टिकोण लिए हुए हैं। एक बिंदु पर आप समझिए कि जिस ‘सतत विकास’ की अवधारणा पर आज हम विमर्श कर रहे हैं, गांधी ने उस अवधारणा को अपनी पुस्तक हिंद स्वराज में आज से करीब ११० साल पहले ही समझ लिया था और उनका यह बात कि आर्थिक समता ही अहिंसक विकास की कुंजी है आज के संदर्भ में सही साबित हो रही है। बढ़ती हुई हिंसा सामाजिक और आर्थिक सौहार्द के लिए खतरा है। हमें यह भी समझना होगा कि गांधी और गांधीवाद को जिंदा रखने की बजाय उनके विचारों के चिंतन की प्रासंगिकता को जिंदा रखा जाए।
(ये लेखक के निजी विचार हैं)
लेखक – डा. विजय श्रीवास्तव
सहायक आचार्य, अर्थशास्त्र विभाग,
लवली प्रोफेशनल विश्वविद्यालय