खनियाधाना: देश की आजादी से पूर्व अपने आप को आजाद कहने वाले ओर अपने अंतिम समय तक अपने आप को आजाद रखने वाले इस देश के महान क्रातिंकारी चन्द्रशेखर आजाद शिवपुरी के खनियाधानां से गहरा नाता दिया है। आजाद का इकलौता एक मात्र फोटो खानियाधानां की ही देन है। एक क्षण भी अगर मिस हो जाता तो यह फोटो आज हमारे पास न होता।
खनिंयाधाना में रहे चन्द्रशेखर आजाद
भगत सिंह के साथी और क्रांतिकारी आंदोलन के अग्रदूत चन्द्रशेखर आजाद का 1925 से 1930 के बीच शिवपुरी से 80 किमी दूर खनियांधाना और यहां की स्टेट के महाराज खलक सिंह से अटूट संबंध रहा। खनिंयाधाना में सीतापाठा नाम से प्रसिद्ध एवं प्राचीन मंदिर है, यह मंदिर नगर के कुछ दूर वीराने में एक पहाड़ी पर बना है। यही मंदिर पांच छह वर्षो तक आजाद का गुप्त स्थान रहा तब आजाद की उम्र 22-25 वर्ष रही होगी।
सघन निर्जन वन में भी इस मंदिर पर आजाद की सेवा शुरु करने एक बारह वर्षीय बालक नियमित आता था। वह बालक कई पड़ाव पार कर अब उम्र ढलान पर आकर आजाद की तमाम स्मृतियों को संजोए इसी मंदिर में संन्यासी का जीवन जी रहा था। यह वृद्ध (जिसे अब इलाके के लोग श्रद्धा के साथ बाबा कहकर पुकारते थे) नाथूराम छापकर शांत, अंर्तर्मुखी और ज्यादातर मौन रहते थे। बाबा को अभिवादन कर जब जब हम उनका चितभंग कर आजाद के साथ गुजरे दिनों के संस्मरण सुनाने की दिनचर्या का जरूरी हिस्सा बन गये थे।
बाबा के चेहरे पर प्रफुल्लता दौड़ती थीं, उनकी आखें चमचमाती थीं और वे स्मृतियों के गहरे जल में गोते लगाते थे। उस समय खनियांधाना एक अलग राज्य था यहां के महाराजा खलक सिंह की क्रांतिकारी गतिविधियों के कारण उन्हें ब्रिटिश हुकुमत ने हटा दिया था और प्रभुदयाल श्रीवास्तव को रेजीडेन्ट बनाकर भेजा था। ब्रिटिश सरकार के इस फैसले के विरोध में 56 गांव की जनता ने दो वर्ष तक खेती नहीं कि नतीजतन फिरंगी हुकुमत को झुकना पड़ा और राजा खलक सिंह को राज्य के अधिकार सौंपने पड़े।
कार मैकेनिंग के रूप में मिले थे राजा को आजाद
खलकसिंह और चन्द्रशेखर की पहली मुलाकात बहुत ही विचित्र, अप्रत्याशित और दिलचस्प हुई। खलकसिंह के पास रोल्स रायस फोर्ड और बेबी हडसन कारें थीं जो झांसी के एक मैकेनिक अलाउद्दीन के यहां ठीक करने दी, इसी गैरेज मे आजाद पं. हरिशंकर शर्मा के नाम से मिस्त्रीगिरी करते थे।
कार ठीक होने के बाद जब महाराज झांसी से खनियांधाना जाने लगे तो अलाउद्दीन ने निवेदन किया कि अगर फिर से कहीं अगर कार खराब हो जाए तो आपको असुविधा न हो और मिस्त्री की पहचान में आजाद महाराज के साथ हो लिए। रास्ते में बबीना के पास महाराज ने गाड़ी रूकवाई और एक पेड़ के सहारे पेशाब करने के लिये बैठ गये, संजोग से वहीं एक सांप निकल आया।
आजाद ने सोचा कि यह सांप महाराज को डस न ले, उन्होंने तुरन्त वक्त गंवाये पिस्तौल निकालकर सांप के फन उड़ा दिया। आजाद का अचूक निशाना देखकर महाराज बिस्मित रह गये थे उन्हे आजाद के मिस्त्री चोले पर शंका होने लगी। झांसी भोपाल रेल लाइन पर बसई नाम का एक स्टेशन है, यहां महाराज खनियांधाना की एक कोठी थी जो बसई कोठी के नाम से आज भी प्रसिद्ध है।
कोठी में आने के बाद महाराज ने आजाद को अंदर बुलवाया और पूछा कि तुम सच सच बताओ कौन हो। आजाद बोले में तो ड्राइवर हूं पर महाराज ने बाद में विश्वास दिलाया कि मैं अंग्रेज विरोधी हूं और क्रांतिकारियों का साथ देने वाला हूं। तब कहीं आजाद ने असलियत उजागर की तब से महाराज खलकसिंह और आजाद में घनिष्ट संबंध बन गये थे।
बसई कोठी में ही ठहरते थे इसके बाद आजाद खनियांधाना से जुड़े दिन भर सीतापाठा के शिव मंदिर मं रहते थे। सुबह जलपान भी इसी मंदिर में करते थे। तब बाबा नाथूराम छापकर बच्चे के रूप में समर्पित रहते थे। आजाद रात में सोने के लिये महाराज के महल में जाते थे, वहीं रात्रि भोज वे खलक सिंह के साथ करते थे। वे कभी-कभी गोविन्द मंदिर भी आते थे।
यही अतिथियों के लिए भोजनशाला थी। आजाद दोपहर का भोजन यहीं करते थे। आजाद के साथ भगवानदास माहौर, सदाशिव भलकापुरकर और मास्टर रूपनारायण आजाद के संरक्षक थे। फिरंगियों की गतिविधियों और क्रांतिकारियों आन्दोलन की जानकारी भी आजाद अपने साथियों के साथ जंगल मं भी घूमते थे। बाबा और इलाके के अन्य लोग आजाद को पंडित के नाम से जानते थे बाबा मानते थे कि लहरीदार काली मूछें थीं बांकी मूछें आजाद खूबसूरत, गोरे और तंदुरूस्त थे कसरत नियमित और लंबे समय तक करते थे।
आजाद की बहुप्रचारित फोटो मूंछे मरोड़ते हुए खींचीं जाने के बारे में बाबा कहते थे कि आजाद फोटो खिंचाने से परहेज करते थे इसके बावजूद महल का छायाकार माजू आजाद का एक फोटो खींचना चाहता था। एक बार आजाद महल में स्नान करने के बाद मूंछे मरोड़ रहे थे यह उनकी दिनचर्या थी। इसी वक्त माजू ने छिपकर चुपचाप आजाद को अपने कैमरे में कैद कर अपनी साध पूरी कर ली थी। आजाद का एक मात्र यही फोटो उपलब्ध था।
27 फरवरी 1930 को इलाहाबाद में आजाद के शहीद हो जाने के बाद महाराज खलकसिंह बहुत उदास हो गये थे। 1935 में उन्होनें अपना पूरा राज अपने पुत्र देवेन्द्र प्रताप सिंह को सौपंकर सन्यास धारण कर लिया और बसई के मंदिर में रहने लगे थे। 96 वर्ष की उम्र में 26 मई 1975 को उनकी मृत्यु हो गई थी इसी बीच खलकसिंह ने कभी महल में प्रवेश नहीं किया था।
मार्च 1968 को उनके इकलौते पुत्र देवेन्द्र सिंह की मृत्यु कैंसर से हुई तब भी खलक सिंह महल में नहीं गए। शासन ने क्रांतिकारी पेंशन भी उन्हें देना चाही पर उन्होनें इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया था। सीतापाठा और आजाद की स्मृतियों से जुड़े यहां के सभी स्थान उपेक्षित होने के साथ अपना मूूल अस्तित्व भी खो रहे थे।
आजाद की सेवा करने वाले नाथूराम भी जैसे तैसे अपना गुजारा कर रहे थे। इसी बीच उन्हे सामाजिक सुरक्षा पेंशन मिलना शुरू हुई थी जो बाद में बंद कर दी गई। समस्त खनियांधाना वासियों की मांग थी कि क्रांतिकारी चन्द्रशेखर आजाद की कर्मस्थली और महाराज खलकसिंह जूदेव की स्मृति में सीतापाठा मंदिर पर मध्यप्रदेश सरकार द्वारा 2 दिवसीय कार्यक्रमों का आयोजन करता चला आ रहा है।
रिपोर्ट – शिवाकांत सोनी