नई शिक्षा नीति और समग्रता


लेखक-तनीमा दत्ता (एसोसिएट प्रोफेसर, लवली प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी)

मध्य प्रदेश के बड़वानी जिले में एक पिछड़ा गांव लिंबी से एक अजीबोगरीब समाचार 14 अगस्त को सामने आई जहांग्राम वासियों ने कलेक्टर और पुलिस अधीक्षक को पत्र लिखकर सूचना दी कि गांव के प्राथमिक पाठशाला की चोरी हो गई है। स्वतंत्र भारत में शायद यह पहला किस्सा होगा जब किसी गांव के स्कूल की चोरी की सूचना आई है। यह समाचार वर्तमान परिपेक्ष में महत्वपूर्ण है क्योंकि 29 जून 2020 को नई शिक्षा नीति की घोषणा की गई जिसमें समग्रता की बात की गई हैं। यह नीति 34 साल बाद आई है जो यह स्पष्ट करती है कि शिक्षा को लेकर सरकार कितनी गंभीर है।

यहां पर यह भी स्पष्ट करना आवश्यक है कि हमारे संविधान के अनुसार शिक्षा समवर्ती सूची का विषय है। जिसका अर्थ यह हुआ कि राज्य सरकार एवं केंद्र सरकार मिलकर शिक्षा को लेकर कार्य करेंगे। वर्तमान नीति में कई विसंगतियां हैं जिनमें से एक यह है की इस पर सदन में कोई चर्चा नहीं हुई जो लोकतांत्रिक प्रणाली के विरुद्धहै। इन विसंगतियों के बावजूद भी यह नीति बहुत महत्वपूर्ण है एवं इसमें कई ऐसे बिंदु दिए गए हैं जो शिक्षा जगत के लिए ना केवल आवश्यक है अपितु छात्रों के भविष्य के लिए भी लाभदायक है।

संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्य का चौथा लक्ष्य शिक्षा है जो समग्र और न्यायसंगत शिक्षा का उल्लेख करता है। नई शिक्षा नीति के अंग्रेजी दस्तावेज में 14 बार समग्र शब्द का उल्लेख किया गया है। इस 66 पन्नों के दस्तावेज में यह कम लग सकता है परंतु एक पूरी इकाई इसी विषय पर लिखी गई है। इससे यह तो स्पष्ट है कि सरकार समग्रता को लेकर चिंतित भी है और कटिबद्ध भी। परंतु बड़वानी जिले के प्रसंग से यह भी स्पष्ट है की जमीनी हकीकत और नीति निर्माताओं के दृष्टांत में अंतर है। असर 2019 के रिपोर्ट में यह बताया गया कि 4 से 8 वर्ष की आयु के 90 प्रतिशत बच्चे किसी न किसी रूप से शिक्षा संस्थानों से जुड़े हुए हैं और दाखिला पाय हुए हैं। यह देश के लिए हर्ष का विषय है परंतु यदि इन आंकड़ों का लैंगिक आधार पर विश्लेषण किया जाए तो एक नई कहानी सामने आती है। 4 से 5 वर्ष की आयु में 56.8% लड़कियां सरकारी स्कूलों में दाखिला पाए हुए हैं और 6 से 8 वर्ष की आयु में यह प्रतिशत बढ़कर 61.1 हो जाता है। इस आंकड़े से यह बात स्पष्ट है कि अभिभावक सरकार की नीतियों के चलते अपनी बेटियों को स्कूल तो भेज रहे हैं परंतु उनकी शिक्षा की गुणवत्ता को लेकर वह बहुत अधिक चिंतित नहीं है। अब यहां पर प्रश्न यह उठता है क्या सरकारी स्कूल गुणवत्ता के दृष्टिकोण से निजी स्कूलों से कमतर है? सरकार चाहे कितने ही बड़े दावे कर ले परंतु यह बात सर्वविदित है की वार्षिक बजट में शिक्षा के लिए 3 प्रतिशत आवंटन से कम रखते हुए वह सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता को बहुत सुधार नहीं सकते। ऐसे में बेटियों का इन स्कूलों में दाखिला पाना इस बात की ओर इंगित करता है की शिक्षा समग्र नहीं है।
सरकार ने अपनी शिक्षा नीति में स्वयं यह आंकड़े दिए हैं की अनुसूचित जाति-जनजाति के छात्रों में ड्रॉप आउट रेट सामान्य वर्ग के मुकाबले अधिक है। लड़कियों की स्थिति और भी खराब है। नई नीति जेंडर इंक्लूजन फंड की बात करती है परंतु यह पहल तब तक कामयाब नहीं होगी जब तक समाज में लड़कियों की शिक्षा को लेकर गंभीरता नहीं दिखाई जाएगी।

सरकार ने अपनी शिक्षा नीति में स्वयं यह आंकड़े दिए हैं की अनुसूचित जाति-जनजाति के छात्रों में ड्रॉप आउट रेट सामान्य वर्ग के मुकाबले अधिक है. लड़कियों की स्थिति और भी खराबहै. नई नीति जेंडर इंक्लूजन फंड की बात करती है परंतु यह पहल तब तक कामयाब नहीं होगी जब तक समाज में लड़कियों की शिक्षा को लेकर गंभीरता नहीं दिखाई जाएगी. लड़कियों की शिक्षा में अभी भी बहुत सी सामाजिक और सांस्कृतिक बाधाएं हैं जिनके चलते समग्रता लाना संभवन हीं है. यह बाधाएं अनुसूचित जाति- जनजाति, अल्पसंख्यक वर्ग, पिछड़ा वर्ग, तथा अन्य सामाजिक रुप से बहिष्कृत समूह में देखने को मिलती है।

इसका एक बहुत छोटा सा उदाहरण मध्यान भोजन कार्यक्रम में देखने को मिलता है जहां कई राज्यों में यह कार्यक्रम इसीलिए सफल नहीं हो पाया क्योंकि दलित वर्ग के लोग इस खाने को बनाते हैं। जॉनद्रेज़ ने अपनी पुस्तक में इस बात का उल्लेख किया है कि राजस्थान, उत्तरप्रदेश आदि राज्यों में दलित द्वारा बनाए गए भोजन को लेकर आपत्ति है और वही आंध्रप्रदेश में यह कार्यक्रम इसलिए सफल है क्योंकि अधिकांश स्कूलों में दलितों द्वारा भोजन बनाया जाता है और किसी भी व्यक्ति को इससे कोई समस्या नहीं है. नई शिक्षा नीति में सामाजिक सीमाओं की बात नहीं की गई है,जो समग्रता के लक्ष्य के लिए आवश्यक है|

नई शिक्षा नीति तकनीक पर भी जोर देती है और वोकेशनल ट्रेनिंग कक्षा 6 से प्रारंभ करने की बात की गई है. वैश्विक स्तर पर यदि हम सोचे तो यह कदम सराहनीय है क्योंकि आने वाली पीढ़ी के लिए तकनीक और कौशल दोनों ही आवश्यक है. इस पहल को लागू करने हेतु यह देखना जरूरी है कि क्या हमारे पास राष्ट्रीय स्तर पर आधारभू तसंरचना उपलब्ध हैकिन ही. आज भी देश के कई हिस्से हैं जहां बिजली नहीं पहुंची है और कई स्कूल ऐसे हैं जो दो कमरों में चलाए जा रहे हैं, जहां शिक्षक पखवाड़े में 1 दिन आते हैंऔर एक ही कमरेमें 3 कक्षा के छात्र साथ मिलकर पढ़ते हैं, जहां बैठने के लिए सामान्य कुर्सी भीनहीं है, जहां शिक्षक केपास मूल पुस्तकें भी उपलब्ध नहीं है, ऐसे मेंकंप्यूटर, तकनीक, कौशल निर्माण की बात करना एक घिनोना मजाक जैसा लगताहै. इस पूरी प्रक्रिया में एक बहुत बड़ा वर्ग पीछे रह जाएगा क्योंकि सभी के लिए प्रारंभिक सीमा या स्टार्ट लाइन बराबर नहीं है.
बहुत जरूरी है की सरकार राज्य सरकारों कोअधिक धनराशि उपलब्ध कराएं ताकि आधारभूत संरचना दूर अंचलों तक पहुंच सके. यह बच्चे क्योंकि शुरुआत में ही पीछे रह जाएंगे अतःआगे चलकर इनके लिए विकल्प भी सीमित ही रहेंगे और कार्य क्षेत्र में भी इनके पास अधिक अवसर नहीं होंगे. ऐसे में न्यायसंगत समाज की परिकल्पना करना बेमानी है.| सरकार के दृष्टांत में कोई कमी नहीं है पर देखना है कि जमीन पर इस नई नीति को किस रूप में लाया जाएगा और गांधी के नए भारत की परिकल्पना को कितना साकार किया जा पाएगा.|

(लेख में दिए गए विचार लेखक के स्वयं हैं और यह किसी संगठन के विचार नहीं माने जाए , लेखिका सार्वजनिक नीति तथा राजनैतिक अर्थशास्त्र की विशेषज्ञ हैं)


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