भारत में सार्वजनिक विमर्श में स्वास्थ्य - Sahet Mahet

भारत में सार्वजनिक विमर्श में स्वास्थ्य


लेखक: विजय श्रीवास्तव (सहायक आचार्य , अर्थशास्त्र विभाग , लवली प्रोफेशनल विश्विद्यालय)
सह-लेखक: दीपक कौशल

वर्ष 2013 में महान अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन और जीन द्रेज़ ने अपनी पुस्तक ‘अनसर्टेन ग्लोरी’ में यह तर्क दिया था , कि भारत में खराब स्वास्थ्य सेवाओं का एक कारण यह भी है कि भारत का मुख्यधारा का मीडिया इन विषयों पर विमर्श नहीं करता है | न केवल पत्रकारिता और प्रिंट मैगजीन में स्वास्थ्य संबंधी सार्वजनिक विषयों की कमी दिखाई देती है।अपितु देश की संसद में भी इस ओर उदासीनता दिखाई देती है। संसद के प्रश्नों का विश्लेषण करने पर यह पाया गया कि मात्र 3% प्रश्न ही देश की स्वास्थ्य सेवाओं के संबंध में पूछे गए। यह आंकड़ा यह दर्शाता है ,कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया में भारत मे स्वास्थ्य कितना उदासीन विषय है | यही कारण है कि जहां सरकारों को कम से कम 3 से 4% राष्ट्रीय आय का हिस्सा स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च करना चाहिए किंतु यह आंकड़ा मात्र 1% है। जबकि चीन में यह आंकड़ा 2.7%, यूरोपियन क्षेत्र में 8% लैटिन अमेरिका देशों में 3.8% है।

भारत में खराब स्वास्थ्य सेवाओं का एक उदाहरण चिकित्सक -रोगी अनुपात के तौर पर भी देखा जा सकता है। विश्व संगठनों के आंकड़ों के अनुसार भारत मे प्रति हजार व्यक्तियों पर 0.53 अस्पताल के बिस्तर हैं, और प्रति 1457 लोगों पर एक चिकित्सक हैं। जबकि विश्व मानक कहते हैं कि प्रति हजार लोगों पर एक चिकित्सक होना अच्छे स्वास्थ्य ढांचे का सूचक है। राज्यवार विशेषण पर यह आंकड़े और भयावह हो जाते हैं। बिहार, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में यह अनुपात राष्ट्रीय स्तर से भी कम है। स्थिति तो यह है कि कोरोना वैश्विक महामारी के दौर में भी बिहार में 1000 व्यक्ति पर 0.1 बिस्तर ही हैं । राज्यों के बीच यह विषमता भारत के जर्जर स्वास्थ्य ढांचे की ओर इशारा करती है।खराब ढांचागत स्वास्थ्य सेवाओं के कारण सरकारी अस्पतालों पर अतिरिक्त बोझ बढ़ जाता है। इस कारण बहुत से समाज विज्ञानी स्वास्थ्य बाजार को निजी क्षेत्र के लिए और उदार बनाने की बात करते हैं। क्योंकि स्वास्थ्य एक वैश्विक सार्वजनिक वस्तु हैं , इसलिये निजीकरण करने से और अनियमितताएं फैलेंगी। गरीबी और कुपोषण के दुष्चक्र में फसे अल्पविकसित देश मुक्त बाजार व्यवस्था सेवाओं के चलते और पिछड़ जाएंगे। अतैव निजीकरण इसका हल नहीं है। यह एक संतोषजनक और आकर्षक बात लगती है कि भारत ने अपने 74वें स्वंतन्त्रता दिवस पर राष्ट्रीय डिजिटल स्वास्थ्य मिशन की शुरुआत की है। ताकि स्वास्थ्य सेवाओं को राष्ट्र की एक बड़ी आबादी तक बिना किसी बाधा के पहुंचाया जा सके।

प्रधानमंत्री मोदी तकनीकी के माध्यम से स्वास्थ्य सेवाओं को समाज के सबसे अंतिम वर्ग तक पहुंचाने के इस कदम को लाल किले की प्राचीर से क्रांतिकारी कह तो देते हैं, किंतु शायद वे भारत की चरमराती स्वास्थ्य व्यवस्था के आंकड़ों की सच्चाई से परिचित नहीं है। जबकि लोकसभा में 20 मार्च 2020 को ही सरकार ने यह स्वीकारा है, कि स्वास्थ्य सेवाओं में भारत विश्व स्वास्थ्य संख्यिकी 2019 की रिपोर्ट के अनुसार सतत विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने में बहुत दूर है। रिपोर्ट के आंकड़ों को सरकार ने संसद में स्वीकार किया है कि स्वास्थ्य क्षेत्र में असामान्यता ,सुरक्षित पेयजल की अनुपलब्धता ,और गरीबों का अत्यधिक स्वास्थ्य खर्च गंभीर मसले हैं। इसलिए स्वास्थ्य सेवाओं को उत्तम बनाने के लिए पहले से लागू नीतियों और इस डिजिटल मिशन के बीच एक समन्वयकारी सेतु बनाना आसान नहीं दिखता क्योंकि पेशेवर स्तर पर भी भारत में स्वास्थ्य विशेषज्ञों की भारी कमी है।

प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना, प्रधानमंत्री जन स्वास्थ्य बीमा योजना अच्छे प्रयास हैं किंतु इस मिशन के साथ इन प्रयासों का प्रतिफल तब तक नहीं मिलेगा जब तक सरकार अपने सकल राष्ट्रीय उत्पाद का कम से कम 4% स्वास्थ्य सेवाओं पर निवेश ना करें | नीतिगत आधार में सरकार को संसद में इन विषयों पर अधिक से अधिक प्रश्न शामिल करने चाहिए तथा विमर्श करना चाहिए किंतु जहां राजनीतिक दलों के एजेंडों में कोरा राष्ट्रवाद और छद्मम धर्मनिरपेक्षवाद हावी हो वहां सामाजिक मुद्दों पर ध्यान कौन देगा ? एक लोकतांत्रिक तर्कशीलता के आधार पर जन -सामान्य को ही सरकार को दबाव बनाना पड़ेगा कि वह इन पर बहस करें। स्वास्थ्य पर मीडिया और संसद में तर्कशील विमर्श ही पहला नीतिगत कदम होना चाहिए।


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