कुशल नेत्री, राजनीतिज्ञ और लौह नारी थीं इंदिरा गांधी


वर्ष 2019 में बैंक राष्ट्रीयकरण के ५० वर्ष पूर्ण हुए और इस विषय पर कई लेख पढनें को मिले। इस ऐतिहासिकनिर्णय के पीछे उस वक़्त की प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी थी, जिनकी आज पुण्यतिथि हैं। आज ही के दिन वर्ष 1984 में उनकी हत्या की गयी और तमाम विश्लेषण उपलब्ध हैं उनके मृत्यु को लेकर। उन्हें भारत की लोह नारी की उपाधि दी गयी और ऐसा माना गया की उनके निर्णय कठोर थे और आपातकाल के निर्णय ने इस बात की पुष्टि की। इतिहासकारों ने बताया है कि वे एक अनिच्छुक नेत्री थी, जिन्हें राजनीति में बहुत दिलचस्पी नहीं थी।

वर्ष 1960 के बाद के घटनाक्रम कुछ इस प्रकार थे कि उन्होंने इंदिरा गांधी में न केवल नेतृत्व क्षमता जगाई परंतु उन्हें एक कुशल राजनीतिज्ञ भी बनाया। वर्ष 1966 में शास्त्री जी के मृत्यु के पश्चात जब इंदिरा जी को प्रधानमंत्री बनाया गया तो कांग्रेस का एक धड़ा उन्हें केवल एक रूपक के रूप में बनाए रखना चाहता था और वह इस बात पर आश्वस्त थे कि श्रीमती गांधी उनके इस मनोदशा को नहीं समझ पाएंगी और एक रबर स्टैंप के रूप में कार्य करेंगी। इसके पूर्व यह देखा गया कि श्रीमती गांधी अस्थिर नेता थी और किसी भी प्रकार के वंशवाद के चलते उन्हें प्रधानमंत्री नहीं बनाया गया। पंडित नेहरू ने कभी भी यह मंशा नहीं जताई कि उनके पश्चात उनकी पुत्री को उनका राजनैतिक स्थान दिया जाए अथवा उत्तराधिकारी माना जाए। परंतु जब श्रीमती गांधी सिंडिकेट से घिर गई। उन्हें लगा कि उन्हें कुछ निर्णायक कदम उठाने होंगे।

ऐसे में श्रीमती गांधी के लिए यह बहुत अनिवार्य था कि वह एक ऐसा कदम उठाएं जो उनको सर्वमान्य नेता के रूप में स्थापित करें और साथ ही समाजवाद की प्रणाली को सुदृढ़ करें। ऐसे में वर्ष 1969 में केंद्रीय सरकार ने 14 बैंकों के राष्ट्रीयकरण की घोषणा की। इसके पूर्व वर्ष 1955 में इंपीरियल बैंक को राष्ट्रीयकृत कर स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की स्थापना की गई परंतु अधिकांश बैंक निजी क्षेत्र में थे जो निजी हितों की रक्षा कर रहे थे। कुल मिलाकर बैंकों का राष्ट्रीयकरण बैंकों राजनीतिक एवं आर्थिक रूप से जरूरी कदम था। यदि केवल अर्थव्यवस्था के परिपेक्ष से देखा जाए तो श्रीमती गांधी का यह कदम उद्धरण के रूप में सामने आता है क्योंकि उस समय के निजी बैंक कृषि क्षेत्र को ऋण देने के लिए तैयार नहीं थे और साथ ही वे केवल उन्हीं उद्योगों को ऋण उपलब्ध कराते थे, जिनके बोर्ड में वे स्वयं थे या उनके हित निहत थे। राष्ट्रीय साख काउंसिल का गठन किया गया।

जिसने प्राथमिक क्षेत्र निर्धारित किए जिसमें कृषि तथा लघु उद्योग प्रमुख थे जिनके लिए कम से कम 40% ऋण देना अनिवार्य था। इस कदम ने श्रीमती गांधी को राष्ट्रीय स्तर पर एक तटस्थ नेता के रूप में स्थापित किया और यह बात भी स्पष्ट हो गई की चुनौतियों के बावजूद वे कठोर कदम उठाने के लिए तैयार थी। उनके इस निर्णय की कड़ी आलोचना की गई और कई निजी बैंक के अध्यक्षों ने इसे बैंकिंग उद्योग के लिए एक श्राप बताया और माना बैंकिंग व्यवस्था को कमजोर कर देगी। यह अलग बात है कि इस निर्णय के पश्चात 50 वर्ष पश्चात हम पाते हैं कि देश के आर्थिक मंदियों से अछूता रहा क्योंकि उसकी बैंकिंग व्यवस्था सुदृढ़ थी और उस पर सरकारी नियंत्रण था।

आने वाले वर्षों में श्रीमती गांधी ने कई ऐसे निर्णय लिए जो मील का पत्थर साबित हुए और भारत की लोकतांत्रिक संप्रभुता को बनाए रखने में सहयोगी बना। इंदिरा गांधी की राजनीति इसलिए भी याद की जाती है क्योंकि उन्हें उन्होंने व्यक्तिवाद को बढ़ावा दिया जहां सत्ता का केंद्रीकरण हुआ और बहुलवाद को दरकिनार कर दिया गया। उन्हें कई तदर्थ निर्णय लिए जो उनके शासन के पर्याय बन गए और जिस कारण से कई संस्थानों ने अपनी प्रभुता खो दी। वह बहुत ही शक्तिशाली नेता के रूप में उभरी जिन्होंने विश्व में देश का लोहा मनवाया, परमाणु परीक्षण करवाएं, कई देशों से आर्थिक और राजनैतिक संबंध स्थापित किए और नेहरू जी द्वारा गुटनिरपेक्षता के रास्ते पर वे आगे बढ़ी। श्रीमती इंदिरा गांधी के कार्यकाल में कांग्रेस पार्टी में भी बहुत बदलाव आए।

कांग्रेस पार्टी में अध्यक्ष की भूमिका को प्रधानमंत्री के सामने गौण कर दिया और पार्टी में लोकतांत्रिक व्यवस्था को भी समाप्त कर दिया। आने वाले वर्षों में कांग्रेस पार्टी के भीतर चाटुकारिता अपने चरम पर पहुंची और कई असंतुष्ट नेताओं ने अपने क्षेत्रीय राजनीतिक दल स्थापित किए जो वर्तमान में कांग्रेस के अस्तित्व पर लगातार प्रहार कर रहे हैं। इन सभी कमजोरियों के बावजूद भी इंदिरा गांधी एक परिपक्व नेत्री थी। जिन्होंने भारत की साख को कमजोर नहीं होने दिया और 1984 के बाद के निजीकरण की नीव रखी।

1979 के चुनाव के पश्चात वह समझ गई थी कि भारत को भी अपनी राजनैतिक और आर्थिक प्रणाली में बदलाव लाना होगा जो विश्व के पूंजीवादी प्रणाली के समानांतर हो और उनकी मृत्यु के पूर्व उन्होंने कई ऐसे कदम उठाएं जो इस दिशा की ओर सरकार की कटिबद्धता को इंगित करते हैं। आज के इस झूठ और फरेब के वातावरण में उनके पुण्यतिथि पर कई बातें उठायी जाएंगी, जिनका इतिहास में कोई वर्णन नहीं है। ऐसे में यह जरूरी है की वर्तमान पीढ़ी उनके राजनीति और निर्णय को सही पृष्ठभूमि में पढ़े और समझे और यही उनके लिए सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

लेखक: डॉ तनिमा दत्ता
शिक्षाविद (लवली प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी)
(ये लेखिका के निजी विचार हैं)


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