आर्थिक मंदी का हल लोहिया का समाजवादी अर्थशास्त्र - Sahet Mahet

आर्थिक मंदी का हल लोहिया का समाजवादी अर्थशास्त्र


लेखक: विजय श्रीवास्तव (सहायक आचार्य, अर्थशास्त्र विभाग, लवली प्रोफेशनल विश्विद्यालय)
सह-लेखक: आशुतोष चतुर्वेदी

आज से करीब 5 वर्ष पहले क्या कोई अर्थ विज्ञानी कल्पना भी कर सकता था कि दुनिया की सबसे तेज विकसित होने वाली भारतीय अर्थव्यवस्था में इतनी तेजी से गिरावट आ जाएगी | कोरोना वायरस ने भारतीय अर्थव्यवस्था के समक्ष वृहद सँरचनात्मक प्रश्न खड़े कर दिए हैं | नीति आयोग जो पिछले कुछ वर्षों में 8% की वृद्धि की संभावनाओं की बात कर रहा था, अब 4 % पर सीमित है | आर्थिक उदारीकरण और 2008 की वैश्विक मंदी के बाद ये भारतीय अर्थव्यवस्था का सबसे बुरा दौर है |

इस घटती हुई आर्थिक वृद्धि दर से प्रति व्यक्ति आय और प्रति व्यक्ति उपभोग में भी कमी आएगी | किन्तु इस घटती हुई दर के दुष्परिणाम यहीं नहीं रुकेंगे| इसका एक परिणाम आर्थिक और सामाजिक असमानता के रूप में भी आएगा |

ये असमानतायें हिंसक वर्ग संघर्ष और हिंसक आंदोलनों को जन्म देंगी | इस मंदी जनित असमानता का सबसे बुरा असर भारत के संघीय समाजवादी ढांचे पर पड़ेगा| जहां एक और कुछ राज्य विशेष अपने ही राज्य के नागरिकों के लिए आर्थिक एवं सरकारी संसाधनों पर आरक्षण की बात करेंगे और लोकतांत्रिक संघवाद के ढांचे पर खतरा पैदा करेंगे|

भारत की आयोजन की आत्मा जो समाजवाद से प्रभावित थी, इस मन्दी जनित असमानता से पीड़ित होती हुई दिखाई देगी | अभी तक अर्थव्यवस्था ने केवल टपकन के सिद्धांत से जन्मी वृद्धि जनित असमानता और दूसरे शब्दों में कहें , क्रूर वृद्धि ही देखी थी किंतु यह मंदी से उपजी हुई आर्थिक असमानता उच्च कोटि की मुद्रा स्फीति की दर और भयावह बेरोजगारी के साथ आएगी|

क्या आर्थिक नीति निर्माताओं के पास क्रूर और हिसंक असमानता के लिए कोई नीति है | और क्या वे इसके द्वारा भविष्य में होने वाले हिंसक आंदोलनों के लिए तैयार हैं ? इसका उत्तर भी नहीं है |

कारण स्पष्ट है कि महामारी ने सरकारी तंत्र से व्याधियों से निपटने के लिए संसाधन सीमित कर दिए हैं | अब संसाधनों की सीमितता का बहाना लेकर सरकारें कल्याणकारी योजनाओं के व्ययों में भारी कटौती करेंगी | जिसके परिणाम स्वरुप मंदी की स्थिति और भयावह हो जाएगी।

इस भयावह स्थिति का लाभ केवल एकाधिकारी पूंजीपतियों को मिलेगा, धन का संकेन्द्रण बढ़ेगा और देश की रीढ़ कहे जाने वाले असंगठित क्षेत्र के छोटे और लघु उद्योग तबाही के कगार पर आ जाएंगे |

दूसरे शब्दों में कहूं तो एक तरफ जहां ये मन्दी, आर्थिक बेरोजगारी लाएगी और दूसरी ओर एक ऐसा हिंसक चक्र तैयार करेगी जहां राष्ट्र के संसाधनों का अधिकतर हिस्सा बड़े धनिकों के पास रहेगा| आपदा में अवसर का लाभ भी बड़े पूंजीपति उठाएंगे | सरकारें पूंजी निर्माण के लिए निजीकरण का मार्ग चुनेंगी |ये एक प्रकार का दोस्ताना पूंजीवाद बनेगा, जिसका चेहरा मानवीय तो कतई नहीं होगा |

क्या इस मंदी जनित आर्थिक असमानता और अमानवीय दोस्ताना पूंजीवाद का कोई हल नहीं है?

उत्तर तलाशने के लिए हमें महान समाजवादी चिंतक और राजनेता लोहिया की एक बात याद रखनी चाहिए “समता और समृद्धि” यानि समाजवाद गरीबी के समान बंटवारे का नाम समाजवाद नहीं है | बल्कि समृद्धि के समान वितरण का नाम समाजवाद है| बिना समाजवाद के समृद्धि असंभव है और बिना समृद्धि के समता व्यर्थ है | अतएव अर्थविज्ञानियों के लिए यह आवश्यक होगा कि वे इस हिंसक असमानता से निकलने के लिए समाजवादी आर्थिक सिद्धांतों को ही अपनाएं | कहीं ऐसा ना हो कि यह मंदी हिंसा का वह दौर ले आए जहां लोहिया की भविष्यवाणी सच साबित हो जिसमें उन्होंने कहा था कि “भूखी सरकारी जनता कातिल बन जाती है और उसका हाथ प्रधानमंत्री की गर्दन तक पहुंच जाता है”। न केवल संसाधनों और राष्ट्रीय आय के वितरण में असमानता आएगी अपितु भूख और गरीबी से भी इस असमानता को बल मिलेगा |

लोहिया ने एक बार संसद में कहा था और जनता से आवाहन किया था कि “भूख से मरने से पहले मंत्रियों और अधिकारियों के घर पहुंचे।उनसे कहो कि पहले हमें खिलाएं और बाद में खुद खाएं और नहीं तो क्रांति करें” |

दूरदर्शी अर्थशास्त्रियों को नए सिरे से समाजवादी आर्थिक सूत्र करने होंगे | किंतु बाजारवादी ताकतों को शरण देने वाली सरकार इसके उलट ही काम करेंगी और असमानता का यह दुष्चक्र एक चक्रव्यूह में बदल जाएगा| जिससे निकलना सरकार के लिए संभव नहीं होगा |

राजनीतिक लोलुपता के लिए बड़े-बड़े खोखले वादे जरूर किए जाएंगे और उनका कोई ठोस सामाजिक या आर्थिक समाजवादी आधार नहीं होगा | झूठा आर्थिक और राजनीतिक राष्ट्रवाद दोस्ताना पूंजीवाद या क्रोनी कैपिटलिज्म को बढ़ावा देगा और सरकार जो अपने नागरिकों को अंग्रेजी के वी ‘V’ अक्षर का नया आशावाद दिखा रही है , जिसमें तेजी से आर्थिक वृद्धि की बात का भ्रम पैदा किया जा रहा है एक अकल्पनीय धारणा ही लगती है|

अकल्पनीय धारणा में समाजवादी लोकतंत्र और समाजवादी अर्थशास्त्र के सिद्धांतों को ही नुकसान होगा| महामारी से उपजी इस आर्थिक मन्दी की दवा समाजवादी सिद्धांत हैं | किंतु मन्दी से खतरा भी समाजवाद को ही है | क्या हम इसके लिए तैयार हैं?

(ये लेखक के निजी विचार हैं)


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