नई शिक्षा नीति में बहुभाषावाद


लेखक- विजय श्रीवास्तव,
सहायक आचार्य अर्थशास्त्र विभाग,
लवली प्रोफेशनल विश्वविद्यालय

सह लेखक- आशुतोष चतुर्वेदी

नयी शिक्षा नीति में कई बिंदुओं पर गहन विचार विमर्श किया जा सकता है। उनमे से एक विषय बहुभाषावाद और भाषा की शक्ति से संबंधित है। शिक्षा नीति में इस बात पर विशेष बल दिया गया है कि विद्यार्थियों को प्राथमिक शिक्षा उनकी मातृ भाषा में प्रदान की जाये। इसके पीछे का तर्क ज्ञान और नवाचार के सृजन से जुड़ा है। दूसरा कारण उनके सीखने की क्षमता और अधिगम से संबंधित है। ऐसा तर्क दिया गया है कि संज्ञानात्मक अभिरुचि के विस्तार के लिए मातृ भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाया जाना एक आवयश्यक शर्त है न केवल प्राथमिक स्तर अपितु माध्यमिक और उच्च स्तर पर भी ज्ञान की नवीनता और शोध की दक्षता के लिए गुणवत्तापूर्ण विभिन्न विषयों के अनुवाद को बढ़ावा देने की बात की गई है।

सैद्धांतिक तौर पर ये विचार आकर्षण से भरा हुआ प्रतीत होता है। लेकिन क्या ये विचार प्रायोगिक रूप में सफल होगा, ये यक्ष प्रश्न हमारे सामने खड़ा हुआ है। इसका एक संदर्भ भाषा के अर्थशास्त्र से जुड़ा हुआ है। किसी भी राष्ट्र की आने वाले प्रगति उसकी शिक्षा नीति पर निर्भर करती है। पूर्ववर्ती शिक्षा नीतियों और योजनाओं में भाषा के अर्थशास्त्र के इस चक्र की ओर विचारकों ने कम ही ध्यान दिया है किंतु अब समय आ गया है कि इस ओर भी ध्यान दिया जाये।

भाषा का भी अपना एक अर्थशास्त्र होता है। इसके बीच के संबंध को समझने के लिए आर्थिक असामानताओं के कारण को भी समझना होगा। आज जबकि दुनिया की कई बोलियां और भाषायें विलुप्त होने के कगार पर हैं, विषय पर चर्चा करना आवश्यक है। दुनिया के कई देशों के पिछड़ेपन और असमानताओं के चक्र में फंसें होने के कारण दुनिया पर अंग्रेजी का एकाधिकार होना भी है। भाषा केवल सम्प्रेषण का माध्यम नहीं है, मात्र सम्पर्क, शिक्षा और विकास का माध्यम नहीं है। भाषा सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय मूल्यों का एक कोश भी है। ये कोश उस ज्ञान का सृजन और नवाचार करते हैं जो आगे चलकर देश के सतत विकास में योगदान देता है। दुनिया को आर्थिक विषमता से बचाने के लिए आवश्यकता केवल इसकी नहीं है कई कि मातृ भाषा के महत्व को समझा जाए। उसके संरक्षण के लिए भी सतत प्रयास होने चाहिए।

जो विकास मॉडल अपने देश की सांस्कृतिक और अमूल्य धरोहर भाषाओं को खो देता है उसे भाषायी गुलामी का सामना करना पड़ता है। भाषाओं का विलुप्त होना सतत विकास की अवधारणाओं के विपरीत है। वर्ष 1961 के जनगणना के अनुसार भारत में 1652 भाषाएँ थी जो, 1971 में 808 रह गई। वर्ष 2013 तक आते आते यह संख्यां मात्र 780 रह गई। पिछले 50 वर्षों में अकेले भारत में 220 भाषाएँ विलुप्त हो चुकी हैं और लगभग 200 भाषाओँ का अस्तित्व खतरे में हैं। भाषाओं का संरक्षण सतत विकास के लक्ष्यों में शामिल होना चाहिए। महान भारतीय वैज्ञानिक सी वी श्रीनाथ के एक शोध ने बताया था कि अंग्रेजी माध्यम से अभियांत्रिकी का अध्ययन करने वाले छात्रों की तुलना में भारतीय भाषाओं के माध्यम से पढ़े छात्र कहीं अधिक उत्तम अनुसंधान करते हैं। एक शोध के अनुसार उन देशों को अधिक नोबेल प्राप्त होते है जो अपनी मातृ भाषा में चिंतन सृजन करते हैं और आगे चलकर यही शोध नवाचार और उधमिता को बढ़ावा देते हैं।

अगर हमें आगे बढ़ना है तो अंग्रेजी के माया जाल से विश्वविद्यालयों और उच्च शिक्षा संस्थानों को निकालना ही होगा। सवाल के विकास और विषमता का भी नहीं सवाल अस्मिता का भी है। हमें समावेशी विकास की अवधारणा में भाषाओं और बोलियों का पतन नहीं चाहिए। ये बोलियां और भाषाएँ केवल साहित्य के लिए अपितु अस्मिता पूर्ण विकास के लिए एक आवश्यक शर्त है। मरती हुई भाषाओं का देश विकास नहीं विनाश करता है, विनाश उन पारम्परिक मूल्यों का जो लाखों समुदाय की बोलियों को बचाने से ही होगा। क्योंकि भाषाओं का विलुप्त होना एक प्रकार से देश की आत्मा का मर जाना है। क्या हम विकास मॉडल को अपनायेगें जो उनसे उनकी मातृ भाषा बोलने का भी अधिकार छीन ले।

अँग्रेजी बोलने वाले बौद्धिक अपंगों की एक पूरी सेना हमने इतने वर्षों में खड़ी कर दी है, सवाल भाषा की श्रेष्ठता का नहीं, ज्ञान के संरक्षण और विमर्श का है | क्षेत्रीय और हिंदी भाषा पर गांधी का चिंतन भी ज्ञान के विकेन्द्रीकरण से है। लोहिया ने कहा था “अर्थव्यवस्था में एक माध्यम के तौर पर अंग्रेजी का प्रयोग काम की उत्पादकता को घटाता है। शिक्षा में सीखने को कम करता है और रिसर्च को लगभग ख़त्म कर देता है, प्रशासन में क्षमता को घटाता है और असमानता तथा भ्रष्टाचार को बढ़ाता है।” अंग्रेजी भाषा ज्ञान के एकाधिकार को बढ़ावा देती है। अंग्रेजी से मेरा विरोध नहीं, विरोध इसके कारण होने वाले आर्थिक संकेन्द्रण से है। अंग्रेजी बोलने वाला वर्ग शासकीय और पूंजीवादी गुलामी के पैदा होता है और हिंदी बोलना वाला वर्ग इस वर्ग के गुलामी के लिए।

नई शिक्षा नीति २०२० में शामिल बहुभाषावाद का मुद्दा सतही तौर पर ज्ञान का केन्द्रीकरण ही है, इससे जन मानस के मध्य उपजी हुई आर्थिक विषमता की खाई को पाटा नहीं जा सकता। बहुभाषावाद का राजनीतिक अर्थों में प्रयोग केवल राष्ट्रवाद की हिंसक परिकल्पना को बढ़ावा देने से है। यदि वास्तव में बहुभाषावाद को आर्थिक प्रगति और भाषा के अर्थशास्त्र से जोड़ना है तो उसके लिए गांधी, विनोबा और लोहिया के भाषा विमर्श को समझना होगा। बिना ज्ञान के विकेन्द्रीकरण और ग्राम विश्वविद्यालों की स्वायत्त स्थापना के ये विचार केवल सैद्धांतिक तौर पर ही अच्छा लगता है। एक समावेशी शैक्षिक नीति में बहुभाषावाद का उद्देश्य एक अहिंसक सामाजिक आर्थिक चक्र का निर्माण करना होना चाहिए। नई शिक्षा नीति इस संदर्भ में संशयों से परिपूर्ण है। अहिंसक आर्थिक समाज की स्थापना के लिए गांधी के उस कथन का भी स्मरण रहना चाहिए ” कतार में खड़े अंतिम व्यक्ति को सबसे पहले दो। ” पर पहले क्या ? भाषायी असमानता से जन्मी आर्थिक असमानता या आर्थिक असमानता से जन्मी निराशा को दूर करने के लिए बहुभाषावाद की घुट्टी, जो कोरे राष्ट्रवाद की चासनी में लिपटी हुई हो।

लेखक- विजय श्रीवास्तव,
सहायक आचार्य अर्थशास्त्र विभाग,
लवली प्रोफेशनल विश्वविद्यालय

सह लेखक- आशुतोष चतुर्वेदी


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